ऑनलाइन भारत

मिट्टी की सौंधी खुश्बू, लहलहाती फसल, पीले फूलों पर उड़ती तितली, मदहोश भँवरें, खुली-स्वच्छ हवा कुछ ऐसा-सा ही स्वरूप है हमारे फ़िल्मी गाँवों का। इन्हंे देख मन मचल उठता है ऐसे स्वर्ग के दर्शन के लिए। 

भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति अति प्राचीन है एवं इसकी जडे़ं मुख्यतः गाँवों से ही जुड़ी हैं। वास्तव में भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता को निष्ठापूर्वक संरक्षण गाँवों से ही प्राप्त है। आधुनिकीकरण की अंधी दौड़ में शहरों से संस्कृति एवं सभ्यता मानो विलुप्त होती जा रही हो। परन्तु ग्रामीण क्षेत्र अभी भी हमारी परम्पराओं को जीवित रखे हुए हैं। तीज-त्योहारों के व्यापारीकरण ने इन्हें मनाने के स्वरूप को ही परिवर्तित कर दिया है। हमारे मुख्य त्योहारों को मनाने के तरीके आज बाजार तय करता है। दिवाली पटाखों एवं बाजारी मिठाइयों का त्योहार हो गया है और होली मात्र महँगे रंगों और पिचकारियों का। लक्ष्मी पूजन एवं होलिका दहन के लिए लोगों के पास समय का अभाव है। ऐसे में हमारे गाँव न केवल इन त्योहारों को जीवन दिए हुए हैं वरन् इनके महत्त्व को भी भली-भाँति समझते हैं। किसी भी परम्परा को निभाने का कारण एवं त्योहार और हमारे पूर्वजों के इतिहास के किस्सों को गाँव के अशिक्षित व्यक्ति भी जुबानी व्याख्यायित कर सकते हैं।

बहरहाल समस्या यह है कि इन गाँवों को जीवित कैसे रखा जाए। शहरीकरण के दौर में गाँवों के मिटने का सिलसिला प्रारंभ चुका है। कहीं समस्या आधुनिक होते गाँवों की है तो कहीं उन गाँवों की जो बाहरी दुनिया से पूर्णतः अनभिज्ञ हैं। ये वे गाँव हैं जिनकी गाँव की परिधि के परे कोई कल्पना नहीं। वहीं उनका आदि है और वहीं उनका अंत। ऐसी स्थिति भी विकासशील भारत की उड़ान को बाधित करती है। किसी भी प्रकार की सुविधा से वंचित-उपेक्षित इन गाँवों में उन्नति-प्रगति जैसे शब्द अर्थहीन हैं। ऐसा नहीं है कि ये किसी आदिवासी क्षेत्र से संबंधित है। इस प्रकार के कई गाँवों की सीमा हाइवे से भी जुड़ी है। वे अपने कोश से बाहर नहीं आना चाहते या किसी भी कारण, चाहे वह अशिक्षा हो या गरीबी, आ नहीं पाते। कई गाँव राजनीति का शिकार हैं। शिक्षित-जागरूक मतदाता अक्सर राजनेताओं की गले की हड्डी बनते हैं। इन गाँवों में महिलाओं की स्थिति अत्यधिक शोचनीय है। उनकी बुनियादी आवश्यकताओं से भी किसी को कोई सरोकार नहीं। सड़क, स्वच्छता, स्वास्थ्य, सुरक्षा, शिक्षा एवं सुविधा मानो व्यर्थ की बातें हों। शासन द्वारा चलाई गई कोई भी स्कीम इन तक नहीं पहुँचती। वस्तुतः इस प्रकार स्थिति किसी भी देश में विकास के दावे को संदिग्ध करती है।

भारत कृषि प्रधान देश है और लगभग ५८ प्रतिशत आबादी कृषि से ही जीवनयापन कर रही है। सरकारी फाइलों के आंकड़े चाहे कुछ भी कहंे परन्तु वास्तव में समस्या विकट है। विश्वपटल पर अपना लोहा मनवाने वाले भारत की मजबूत बुनियाद (गाँव) ही उसकी सफ़लता को स्थायित्व दे सकती है। इनकी उपेक्षा उन्नति के शिखर पर क्षणिक उपस्थिति का सबब बन सकती है।

‘भारत एक खोज’ इसी दिशा में किया जा रहा एक प्रयास हैः इस प्रकार के गाँवों को सरकारी तंत्र एवं बाहरी दुनिया से जोड़ना, इन गाँवों की समस्या और साथ ही विशेषता से दुनिया को परिचित कराना। आशा करते हैं कि इसके माध्यम से जरूरतमंद सुदूर क्षेत्रों की पुकार संबंधित विभागों तक अवश्य पहुँचगी।